हेल्लो दोस्तों आज के इस पोस्ट में आपको principles of organisation in hindi के बारे में बताया गया है की क्या होता है कैसे काम करता है तो चलिए शुरू करते है
Contents
- संगठन के सिद्धान्त (Principles of Organisation)
- 1.उद्देश्यों की समरूपता (Unity of Objectives)
- 2.विशिष्टता का सिद्धान्त (Principle of Specialization)
- 3.अधिकार का सिद्धान्त (Principle of Authority)
- 4.समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Coordination)
- 5.आदेशों की एकता का सिद्धान्त (Principle of Unity of Command)
- 6.नियन्त्रण के विस्तार का नियम (Principle of Span of Control)
- 7.अपवाद का सिद्धान्त (Principle of Exception)
- 8.लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)
- 9.सरलता का सिद्धान्त (Principle of Simplicity)
- 10.उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Principle of Responsibility)
- 11. सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Balance)
- 12.निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)
- 13.क्रमिकता का सिद्धान्त (Principle of Scalarity)
- 14.दायित्वों एवं अधिकारों की समानता का सिद्धान्त (Principle of Parity between Authority and Responsibility)
- 15.दक्षता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency)
- 16.प्रभावी संचार का सिद्धान्त (Principle of Effective Communication)
- अच्छे संगठन के लाभ (Advantages of Good Organisation)
संगठन के सिद्धान्त (Principles of Organisation)
किसी भी औद्योगिक या व्यावसायिक उपक्रम के विभिन्न विभागों (Departments) में सामन्जस्य (Coordination) बनाये रखना आवश्यक होता है क्योंकि किसी उपक्रम की दक्षता उसके संगठनात्मक ढाँचे पर निर्भर करती है।
सामन्जस्य बनाने के लिए आवश्यक है कि संगठन कुशल एवं दृढ़ हो और उपक्रम के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समर्पित हो। सघन (Sound) तथा दक्ष संगठनात्मक ढाँचा बनाने के लिए अपनाये जाने वाले प्रमुख सिद्धान्त निम्न हैं
1.उद्देश्यों की समरूपता (Unity of Objectives)
उपक्रम का उद्देश्य संगठनात्मक ढाँचे पर प्रभाव डालता है। किसी उद्योग या व्यावसायिक उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करने वाला यन्त्र विन्यास (Mechanism) ही संगठन है। जब उपक्रम एवं संगठन का एक ही उद्देश्य हो, तब ही उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए आवश्यक है कि समूचे उपक्रम के, विभाग के तथा संगठन के प्रत्येक पद के उद्देश्य स्पष्ट एवं सुपरिभाषित होने चाहिए। सभी का उद्देश्य उपक्रम के पूर्व निर्धारित लक्ष्य को न्यूनतम व्यय पर प्राप्त करने का होना चाहिए।
2.विशिष्टता का सिद्धान्त (Principle of Specialization)
प्रभावी संगठन में विशिष्टता का विशेष महत्व है। संगठन में कार्यरत प्रत्येक कर्मचारी को उसकी विशिष्टता अर्थात उसकी दक्षता, योग्यता, अनुभव, क्षमता आदि के अनुसार ही कार्य देना चाहिए। संगठनात्मक ढाँचा इस प्रकार बनाया जाना चाहिए कि उपक्रम की गतिविधयाँ उनके कार्य के अनुरूप विभाजित हो।
3.अधिकार का सिद्धान्त (Principle of Authority)
किसी की उपक्रम के संगठनात्मक ढाँचे में शीर्ष स्तर से लेकर निम्न स्तर तक प्रत्येक के कुछ अधिकार होते हैं जिनकी मदद से वह अपने अधीनस्थ कर्मचारी से काम करा सकता है और उसकी जवाबदेही सनिश्चित कर सकता है। कोई कार्य छूट न जाये अथवा कोई कार्य दो बार (repeat) न हो जाए इसके लिए आवश्यक है कि संगठन के प्रत्येक कर्मचारी की सीमा रेखा स्पष्ट एवं सुपरिभाषित हो।
4.समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Coordination)
संगठनात्मक ढाँचा ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक विभाग एक टपरे से समन्वय बनाकर समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करे। मूलभूत प्रबन्धन क्रियाओं को करने के लिए अर्थात क्रियाआ की समरूपता के लिए भी समन्वय आवश्यक है।
5.आदेशों की एकता का सिद्धान्त (Principle of Unity of Command)
इस सिद्धान्त के अनुसार एक कर्मचारी को एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त होने चाहिए। यह सिद्धान्त भ्रम की स्थिति को दूर करता है और कार्य में आ सकने वाले गतिरोध को समाप्त करता है। इस सिद्धान्त से प्रत्येक को अपनी जिम्मेदारी का भी अहसास होता है तथा विभिन्न अधिकारियों द्वारा दिये गये प्रतिकूल आदेशों के कारण बन सकने वाली टकराव की स्थिति समाप्त हो जाती है।
6.नियन्त्रण के विस्तार का नियम (Principle of Span of Control)
कर्मचारियों को वह संख्या जो सीधे तौर पर प्रबन्धक के प्रति जवाबदेह होती है, नियन्त्रण का विस्तार कहलाती है। एक प्रबन्धक बहुत अधिक व्यक्तियों पर उचित नियन्त्रण नहीं रख पाता है, उनके द्वारा कृत कार्यों की सही देखभाल नही कर पाता है तथा उन्हें वाँछित मार्ग दर्शन एवं निर्देशन भी नहीं दे पाता है। छोटे उपक्रमों में यह संख्या 6 (छह) तक हो सकती है जबकि बड़े उपक्रमों में यह संख्या 20 (बीस) तक हो सकती है।
यदि नियन्त्रण का विस्तार छोटा होगा तो प्रबन्धक अपने अधीनस्थों से बार-बार मिल सकता है उसका मार्ग-दर्शन कर सकता है तथा उनके द्वारा की जा रही गतिविधियों पर पैनी नजर रख सकता है। यदि विस्तार बड़ा होगा तो प्रबन्धक अपने अधीनस्थ से कम मिल पायेगा जिससे वे लापरवाह तथा उदासीन हो जायेगें। नियन्त्रण का विस्तार क्या हो, इसके लिए निम्न कारण महत्वपूर्ण हैं
- अधीनस्थों की क्षमता, दक्षता तथा अनुभव,
- प्रबन्धक की क्षमता एवं दक्षता,
- विशिष्ट तथा रूटीन कार्य के लिए विस्तार बड़ा हो सकता है,
- जटिल कार्यों के लिए विस्तार छोटा रखा जाता है।
- नियन्त्रण का विस्तार छोटा रखना आदर्श होगा जब कर्मचारी अलग-थलग (isolated) क्षेत्र में कार्य करते हो, विभिन्न प्रकार का कार्य करते हो तथा अधिक नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण आवश्यक हो।
- नियन्त्रण का विस्तार बढ़ाया जा सकता है जब उद्देश्य, नियोजन एवं नीतियाँ स्पष्ट हो, कर्मचारी को कोई भ्रांति न हो तथा प्रत्येक कर्मचारी को अपनी जिम्मेदारियों, दायित्वों व अधिकारों का स्पष्ट ज्ञान हो।
7.अपवाद का सिद्धान्त (Principle of Exception)
इस सिद्धान्त के अनुसार केवल जटिल समस्याओं को ही प्रबन्धकों तक पहुँचाया जाना चाहिए। रोजमर्रा की समस्याओं को अधीनस्थों द्वारा स्वयं ही निपटा लेना चाहिए। संगठन के उच्च स्तर को बड़ी तथा जटिल समस्याओं को समझने एवं उनके निपटारे के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है। अत: वे रोजमर्रा की समस्याओं पर उतना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं।
8.लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)
इस सिद्धान्त के अनुसार बदली हुये परिस्थितियों में संगठन के प्रारुप में फेर बदल करने, संशोधन करने तथा विस्तार करने के लिए पर्याप्त लचक होनी चाहिए।
9.सरलता का सिद्धान्त (Principle of Simplicity)
इस सिद्धान्त के अनुसार संगठन को सरल होना चाहिए तथा स्तरों clevels) की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए। स्तरों की अधिक संख्या से समन्वय में कमी आती है तथा उचित संचार (communication) भी नहीं हो पाता है।
10.उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Principle of Responsibility)
संगठन का ढाँचा ऐसा होना चाहिए कि कोई अधिकारी अपने अधीनस्थों को कार्य सौंपकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त न हो पाये। दूसरे शब्दों में, कोई अधिकारी अपने अधीनस्थ द्वारा किये गये कार्य कलापों के लिए भी उतना ही उत्तरदायी होगा जितना कि अधीनस्थ कर्मचारी।
11. सन्तुलन का सिद्धान्त (Principle of Balance)
संतुलन का नियम संगठन के निम्न अवयवों के बताता है
(i) गतिविधियों में संतुलन-विभिन्न विभागों का आकार तथा उनके द्वारा की जाने वाली गतिविधियाँ अनुपातिक होनी चाहिए।
(ii) दायित्वों और अधिकारों में संतुलन होना चाहिए।
(iii) उत्पाद की मानकीकरण तथा लचीलेपन में संतुलन रहना चाहिए।
(iv) केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण में संतुलन रहना चाहिये।
(v) नियन्त्रण के विस्तार के नियम तथा निर्देशों की छोटी श्रृंखला (Short chain of command) के नियम के मध्य संतुलन रहना चाहिए।
12.निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity)
संगठन का ढाँचा इस प्रकार बनाया जाना चाहिए जो लम्बे समय तक कार्य करे तथा संगठन की आवश्यकताओं की पूर्ति करें। यह बदली हुयी परिस्थितियों में खुद को बदलने की इच्छा रखता हो और उपक्रम के हितों को पूरा करता हो।
13.क्रमिकता का सिद्धान्त (Principle of Scalarity)
संगठन उच्च स्तर से निम्न स्तर तक एक ऊध्वाधर रेखा मध्य निदशी (Commands) की विभिन्न तथा लगातार कडियाँ हैं। उच्च स्तर के अधिकार बिना बाधा के निम्न स्तर तक जाने चाहिए।
14.दायित्वों एवं अधिकारों की समानता का सिद्धान्त (Principle of Parity between Authority and Responsibility)
अधिकार का अर्थ है कि अधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थों को निर्देश देने की क्षमता (Capacity)। उदाहरणार्थ अगर किसी सुपरवाइजर को कोई कार्य पर्ण कराने का दायित्व सौपा जाता है परन्तु उसको पर्याप्त अधिकार नहीं दिये जाते तो परिणाम के लिए सुपरवाइजर जिम्मेदार नहीं होगा। अधिकारों एवं दायित्वों के मध्य संतुलन बना रहना चाहिए। बिना अधिकारों के दायित्वों का निर्वाह करना कठिन है।
15.दक्षता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency)
एक संगठन ऐसा होना चाहिए जो उपक्रम के उद्देश्यों को न्यूनतम व्यय तथा न्यूनतम प्रयास में हासिल कर सके। वह मानव तथा पदार्थों के संसाधनों का अधिकतम सदुपयोग करने में सक्षम होना चाहिए।
16.प्रभावी संचार का सिद्धान्त (Principle of Effective Communication)
संचार अथवा सम्प्रेषण ऐसा माध्यम है जो उपक्रम के प्रत्येक विभाग को आपस में जोड़कर रखता है। अतः सम्प्रेषण की तकनीक उच्च एवं स्पष्ट होनी चाहिए जिससे कि उच्च स्तर द्वारा दिये गये आदेश एवं निर्देश निम्न स्तर तक बिना किसी बाधा के, बिना तोड़े-मरोड़े, स्पष्ट रूप में पहुँचे। निर्णयों का सही क्रियान्वन हो, इसके लिए जरूरी है कि लिया गया निर्णय सबके पास स्पष्ट रूप में उपलब्ध हो। संगठन के बाहर के लोगों से भी विभिन्न समस्याओं एवं कार्यों के लिए संचार की आवश्यकता होती है। अत: संचार स्पष्ट, भ्रमित न करने वाला तथा प्रभावी होना चाहिए।
अच्छे संगठन के लाभ (Advantages of Good Organisation)
एक अच्छे संगठन के निम्न लाभ होते हैं
(i) उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उत्तरदायित्व तय करता है।
(ii) श्रमिकों अथवा कर्मचारियों के मध्य वाद-विवाद को सुलझाता है।
(iii) यह सरल संचार व्यवस्था बनाता है और प्रबन्धकों की मदद करता है।
(iv) कार्य और गतिविधियों के उचित वितरण में मदद करता है।
(v) यह किसी कामगार के कार्य निष्पादन को उसके दायित्व के विरुद्ध मापता है।
(vi) यह वर्तमान ढाँचे में ज्यादा छेड़छाड़ किये बगैर उसके आकार को छोटा या बड़ा करने में मदद करता है। (vii) यह कार्य को दोहराने (Duplication) से बचाता है।
(viii) यह अच्छा समन्वय तथा उच्च नैतिकता का वातावरण बनाता है।
(ix) यह बिना अतिरिक्त भार बढ़ाये और पर्याप्त नियन्त्रण के साथ संगठन के विस्तार को संभव बनाता है।
(x) यह न्यूनतम व्यय पर संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल को सुनिश्चित करता है
reference-https://www.economicsdiscussion.net/organisation/principles-of-
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